रियो की तैयारी पूरी../कुलविंदर सिंह कंग
व्यंग्य
रियो की तैयारी पूरी...
रियो दी जिनेरियो ओलंपिक शुरू होने में अब लगभग दस महीने ही रह गए हैं।
बस! सिर्फ दस! अरे भाई, अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है। इतनी तैयारियां
करनी है कि बस पूछो ही मत। अरे क्या कहा? पदक वगैरा? अरे उसकी कौन बात कर
रहा है.. हम तो हमारी घूमने-फिरने, मौज मस्ती और शॉपिंग की तैयारियों की
बात कर रहे हैं। अगर थोड़ा बहुत समय मिला तो खिलाड़ियों से पदकों की
तैयारियों के बारे में भी पूछ लेंगे। वैसे हमें उसकी चिंता करने की जरूरत
नहीं है, उसके लिए सरकार टॉप (TOP, Target Olympic Podium) स्कीम के तहत,
टॉप प्रायोर्टी पर, टॉप क्लास बड़े-बड़े बंद कमरों में, टॉप क्लास एयर
कंडीशन्ड के नीचे बैठी विचार कर रही है, तो लगता है कि इस बार कुछ न कुछ
तो टॉप होकर ही रहेगा। सरकार तो सोच रही है कि इस बार ज्यादा से ज्यादा
पदक आएंगे लेकिन जो जुगाडू खिलाड़ी और अधिकारी रियो जाने की ताक में हैं,
उनकी टॉप प्रायोर्टी पदकों की बजाय परचेजिंग होगी। ऐसे ही कुछ लोग ‘टॉप’
जैसी अच्छी योजना को भी ‘टोपी’ पहनाकर लौट आएंगे।
सुना है कि रियो ओलंपिक वालों की तैयारियां भी अभी अधर में ही लटकी हुई
हैं.. प्लीज पता कर लो, कहीं उनकी आयोजन समिति में कोई 2010 दिल्ली कॉमन
वेल्थ गेम्स कमेटी का बंदा तो नहीं घुस गया है? उन्होंने कलमाडी साब को
भी फोन करके पूछा होगा कि ‘टुम हमको बटाओ कि खेलों की कैसी टैय्यारी
होती?’ इधर से जवाब गया होगा.. तैयारी? व्हॉट तैयारी? हमने तो की थी लीपा
पोती? ‘उसके बाद’ ? सर! उसके बाद तो तिहाड़ जैसी रमणीक जगह के लिए कुछ
दिनों का ‘पैकेज टूर’ मिला था, जिसमें ‘हो हो’ बसों वाली राइड की जगह
बस.. ‘हाय हाय’ मार दिया वाली साइड ही होती है। साइडों में ‘किस किस’ जगह
पड़ती हैं और कहां-कहां नहीं पड़ती.. बस पूछो मत। जहां-जहां पर भी रॉड से
पड़ती है.. वहां-वहां ही फिर हड्डी के साथ रॉड डालनी पड़ती है। ऐसी-ऐसी
जगहों पर नील पड़ते हैं जो नील नदी में इश्नान करने के बाद भी नहीं
जाते।
रियो ओलंपिक के आयोजकों की तैयारी चाहे अभी आधी-अधूरी ही क्यों न हो..
लेकिन यहां अफसरों और कोचों की तैयारी कम्पलीट हो चुकी है कि किस एथलीट
को साथ लेकर जाना है.. छद्म नाम और छद्म काम
से रियो की गलियों में संग घूमना-घुमाना है। ऊपर से रियो कार्निवल और
सांभा डांस की कल्पना करके ही मन-मयूर नाचने लगता है। ब्यूटीफुल कम्पनी
के लिए ही तो इतनी सारी योजनाएं बन रही हैं वर्ना यहां अपने वाली को तो
गुडगांव का ‘किंगडम ऑफ ड्रीम’ दिखा दो या जनपथ की थडा मार्किट से एक दो
टॉप दिलो दो.. बस इतना ही काफी है। यहां की बात ही कुछ और है.. यहां पर
जनपथ की नहीं बल्कि सरकार वाली ‘टॉप’ की बात हो रही है।
कोई चाहे कितनी भी बड़ी उम्र का क्यों न हो.. परंतु रियो के सांभा डांस का नाम
सुनते ही जवानी लौट आती है। यहां पर चाहे अपना बुढऊ अफसर थुलथुल पेट की
वजह से कोट पैंट और टाई में भी ना जंचता हो.. परंतु देखना... रियो कार्निवल
में जाकर काऊ हैट और बरमूडे में ठुमके लगाता हुआ वाकई ‘टॉप क्लास’ लगेगा।
बात सिर्फ कम्पनी की होती है। घरवाली एंड कम्पनी तो अब शायद एंड हो चुकी है।
वापिस लौटने पर चाहे कोई रिटायर्ड जज की कमेटी कितना भी पूछे... पूछती
रहे... सांनू की फर्क पैंदा है? जांच में पूछा जाएगा- “अरे ओ सांभा..
कार्निवल में कितने आदमी थे जो खेल मैदान छोड़कर रात भर डांस करते रहे?इसलिए खिलाड़ी खाली हाथ लौट आए। बहुत नाइंसाफी है रे! सजा मिलेगी.. बरोबर
मिलेगी।..हा हा हा .. ये डांस वाली डीवीडी हमें दिखा दे ठाकुर।”
इतने सालों तक खेलों का ट्रेनिंग शैड्यूल ही बनाया था, परंतु कोई ‘पदक’ तो आये
नहीं बल्कि ‘पद’ और चले गए। क्यों न अब दूसरा ही शैड्यूल बनाकर देखा जाए..
पहले तो जो लुका छिपा का खेल होता था, क्यों न उसको खुलकर खेला जाए। घूमना,फिरना, मौज-मस्ती.. क्योंकि कइयों का तो ये अंतिम अलंपिक ही होगा। “आ..जा..
सिमरन.. जी ले अपनी जिंदगी।” रियो दुनियां का एक दूसरा ही कोना है.. जहां
पर जाकर कोने-कोने में गुल खिलाए जा सकते हैं। ऐसा शैड्यूल बनाएंगे कि कई
सालों तक जांच कमेटी सिर्फ ये ही गीत गुनगुनाएगी- “एक था बत्ती गुल और एक
थी बुलबुल, दोनों ही रियो में चहके थे.. है ये कहानी बिल्कुल सच्ची
पुलिसिया मामा कहते थे..।”तैयारी चालू आहे।चलो छड्डो जी ,सानूं की !
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