बदलना एक खेला का बदतमीजी में
ये टी-20 है बॉस न तमीज से देखा जाता है, न तमीज से देखा जाता है।
स्मिता मिश्र
टी-20 विश्व कप क्रिकेट की पंच लाइन के रूप में ये सूक्ति वाक्य पिछले दिनोंचर्चा में रहा। क्योंकि ये पंक्तियां उस खेल के बारे में कही गई हैं जो कि जेंटलमेंल गेम कहा जाता है। जब इस जेंटलमेंस खेल की शुरुआत हुई थी तो यह खेल पांच दिन का होता था। जिसमें खिलाड़ियों पर कम दबाव रहता था। अगर आज भी देखे तो टेस्ट मैच को ही असली क्रिकेट कहा जाता है। लेकिन उसके बाद जैसे ही यह खेल पांच दिन से एक दिन में सिमटा इसमें खिलाड़ी पर दबाव बढ़ गया। जहां पहले फैसला आने में कुछ दिन लग जाया करते थेवहीं अब एक ही दिन में फैसला आने लगा। दबाव के साथ खेल में आक्रमकता भी बढ़ी। खेल में ताने कसने और बल्ला दिखाने का दौर शुरू हुआ। जिसके बाद टी-20 के दौर में तो हाथापाई तक की खबरे आई। आधे दिन के इस खेल में जीतने का इतना दबाव रहता है कि खिलाड़ी खेल भावना को ही भूल जाते हैं। हरभजन और श्रीशांत का थप्पड़ मारने का मामला कोई कैसे भूल सकता है।
पहले केवल फुटबॉल जैसे खेल में ही मार-पीट की घटनाएं सुनाई देती थी। जिसके पीछे तर्क यह दिया जाता था कि वह उन देशों का खेल हैं जहां विकास नहीं पहुंचा है। लेकिन अब इस खेल में थप्पड़ की गूंज सुनाई दे रही है तो इस खेल को जेंटलमेंस खेल कैसे कहा जाए। पहले टी-20 के बाद से तो इस खेल में चीयरलीडर्स का नाच भी होने लगा है। इस खेल ने खुद को बाजार के मुताबिक बनाने के चक्कर में खुद को एक तमाशा बना लिया है। जिस तरह तमाशे में मदारी के इशारों पर बंदर नाचता है ठीक उसी तरह बाजार के मुताबिक यहां खिलाड़ी नाचते हैं। खेल खेल न रहकर तमाशा बन जाता है। जहां दर्शकों को स्टे़डियम और टीवी से जोड़ने के लिए हर संभव जुगाड़ किया जाता है। बदलते समय के साथ खेल में भी बदलाव आना लाजमी है। जीवनशैली में बदलाव के कारण खेल में बदलाव आया है। खिलाड़ी को बिगाड़ने के लिए या यो कहें कि नए पाठ पढ़ाने के लिए बाजार ने नए नीतिशास्त्र गढ़ लिए हैं।
पहले केवल फुटबॉल जैसे खेल में ही मार-पीट की घटनाएं सुनाई देती थी। जिसके पीछे तर्क यह दिया जाता था कि वह उन देशों का खेल हैं जहां विकास नहीं पहुंचा है। लेकिन अब इस खेल में थप्पड़ की गूंज सुनाई दे रही है तो इस खेल को जेंटलमेंस खेल कैसे कहा जाए। पहले टी-20 के बाद से तो इस खेल में चीयरलीडर्स का नाच भी होने लगा है। इस खेल ने खुद को बाजार के मुताबिक बनाने के चक्कर में खुद को एक तमाशा बना लिया है। जिस तरह तमाशे में मदारी के इशारों पर बंदर नाचता है ठीक उसी तरह बाजार के मुताबिक यहां खिलाड़ी नाचते हैं। खेल खेल न रहकर तमाशा बन जाता है। जहां दर्शकों को स्टे़डियम और टीवी से जोड़ने के लिए हर संभव जुगाड़ किया जाता है। बदलते समय के साथ खेल में भी बदलाव आना लाजमी है। जीवनशैली में बदलाव के कारण खेल में बदलाव आया है। खिलाड़ी को बिगाड़ने के लिए या यो कहें कि नए पाठ पढ़ाने के लिए बाजार ने नए नीतिशास्त्र गढ़ लिए हैं।
आज जीवन से महत मूल्य गायब होते जा रहे हैं। ऐसे में मनोरंजन और खेल हमारे 'तात्कालिक महानायक और 'तात्कालिक मूल्य गढ़ते जा रहे हैं। ऐसे महानायकों की छवि मीडिया द्वारा गढ़ी, प्रसारित और प्रचारित की जाती है। ये महानायक जावन के वास्तविक मूल्यों की वकालत नहीं करते। जो महानायक जीवन की तमाम र्वणनाओं की वकालत करके विवाद उत्पन्न करते हैं। वहीं महान होते हैं। जो जितना विवादस्पद वह उतना महान। 'तुरंत-फुरंत क्रिकेट भी यही कर रहा है। तुरंत-फुरंत नायक गढ़ता है और बाजार उसे भुनाता है। जब विवादित पक्ष समाप्त हो जाता है तो उतनी ही तेजी से यह बाजार और मीडि़या उसे छोड़ किसी नए महानायक की तलाश में निकल पड़ते हैं।
इसके विपरित किसी भी समय समाज को गतिशील रखने के लिए मूल्य के पक्षधर नायक अपेक्षित होते हैं। जो कि उन मूल्यों की रक्षा के लिए संर्घष और त्याग करते हैं जिसे कई खिलाड़ी भूला चुके हैं। वे किसी भी हाल में उन मुल्यों की रक्षा कर समाज को नई दिशा दिखाते हैं। बाजार और मीडिया का दायित्व है कि अपने निजी स्र्वाथों की रक्षा के लिए इन मूल्यों की बलि न चढ़ने दे। क्योंकि जब समजा रहेगा, संस्कृति रहेगी तभी वे भी रह पाएंगे।
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