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दंगल में मंगल: महिला कुश्ती

व्यंग्य 
कुलविन्दर सिंह कंग 
 
दंगल तो दंगल होता है, चाहे मन का दंगल हो या तन का दंगल। जहां तन के दंगल में जीत या हार होती है। वहीं मन के दंगल में आनंद और कुंठा दोनों ही हो सकते हैं। ये तो मन के दंगल के खिलाड़ी को ही पता होता है कि सामने वाला कौन है? लोग बाग तो उस बंदे की मुस्कुराहट और चेहरे के हाव-भाव को देखकर बस अंदाजा ही लगा सकते हैं कि सामने वाला कितना खूबसूरत होगा।
 
कहते हैं कि तन तंदरूस्त तो मन तंदरूस्त! अब तन तो इतने तंदरूस्त रहे नहीं और  आजकल फिल्में, टीवी, डीवीडी और बीच बाजार के हसीन नजारे मन को भी सुंदर और  तंदरूस्त कहां रहने देते हैं? पहले कड़ी दिनचर्या और ब्रम्हचर्य का पालन करने वाले पहलवानलड़कयों से कोसों दूर रहते थे...या उस्ताद के डर से रहना पड़ता था। लेकिन अब जब  लड़कियां ही अखाड़े में उतर गई हैं, तो बेचारे पहलवान कहां तक आंखे मींचते फिरे और  फिर मींचे भी क्यों? अब अखाड़े की मिट्टी की सौंधी-सौंधी महक की जगह महिला पहलवानों के परफ्यूम की खुश्बू जब नथुनों में पड़ती है तो नथुने तो क्या पहलवान और रेफरी भी  फड़फड़ाने लगते हैं। इनकी जुल्फों में पहलवानों के मन रह रहकर अटक जाते हैं। अखाड़े की इन परियों ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया है।
 
अखाड़े के वर्तमान पहलवानों ने न तो इस बात का विरोध किया और मेरे ख्याल से ना कभी करेंगे। करें भी क्यों, कोई अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है क्या? विरोध की बात तो छोड़ो,  मुझे तो लगता है कि अगर किसी दिन कोई महिला पहलवान अखाड़े में ना आई तो ये छोरे तो उसका हाल-चाल पूछने घर तक चले जाएंगे। एसएमएस करके पूछेंगे..‘पहलवान डॉर्लिंग!  वेयर आर यू’?  अब तो क्रिकेट सीखने वाले बच्चे भी बैट पटक कर लंगोट कसने की तैयारी कर रहे हैं। आखिर पहलवानों के सीने में भी कभी इमरान हाश्मी का दिल जाग सकता है, ये कोई जरूरी थोड़े ना है कि हर समय महाबली सतपाल या दारा सिंह की ही मूर्ति बने रहें।

अखाड़ों में महिला पहलवानों की एंट्री का दबा-दबा सा विरोध अगर कोई कर रहा है तो वों हैं बाहर लाइन पर बैठे लाइन पार हो चुके कुछ बुढ़ऊ पहलवान। इन पहलवानों के पेट में  मरोड़ उठना लाजमी है... कि अखाड़ों में रंगीनियां बिखेरने में इतनी देर क्यों की। हमारे वक्त  वो कहां मर गया था जिसका ये इतना हसीन आइडिया है? ये लोग अब बाहर बैठे चश्में  में से आंखे फाड़-फाड़ कर कहने भर को कुश्तियां देख रहे हैं। क्योंकि अब इस उम्र में  मोतिया बिंद इनकी आंखों के शटर को हमेषा के लिए बंद करने की फिराक में घूम  रहा है। बेचारे पुराने पहलवान इनके वक्त में सिर्फ सूखा दंगल और अब अखाड़ों के  जंगल में मंगल..! इनका मंगल तो अब बस, ‘मंगल बाजार’ तक ही सीमित हो गया है। घुटने   गोड़ों की सूख चुकी चिकनाई भी उन्हें वहां तक ढ़ंग से सीधे होकर पहुंचने नहीं देती है। मूढ़ेसे उठते समय गोड़ों की चू-चपड़ अनु मलिक के संगीत का आभास देती है। कईयों ने तो  चोरी-चोरी घुटनों पर केस्ट्रॉल चिकनाई युक्त लुब्रीकेंट की मालिश भी करके देख ली, पर कोईफर्क नहीं पड़ा।
 
महिला पहलवानों के माता-पिता को उनके अखाड़ों में उतरने पर इतना एतराज नहीं होगा।  जितना इन बुढ़ऊ पहलवानों को है। लंदन ओलंपिक में महिला पहलवान ज्यादा कुछ नहीं करसकी तो कुछ बुढ़ऊ पहलवान खुश होकर बोले. ‘देखा! अगर जीतना है तो पहले हमसे गुरु  मंत्र लेना होगा। प्रैक्टिकल तौर पर दांव-पेंज सिखाएंगे तब जाकर कहीं बात बनेंगी।’ मुझे  लगता है कि, इन्हें शायद आंखों से तो धुंधला दिखाई देता होगा, लेकिन कांपते हाथों में  ‘फीलिंग’ सी अभी भी महसूस होती होगी। इसलिए ही तो प्रैक्टिकल करके बताने की बात  करते हैं। हो सकता है अभी भी इनके शरीर रूपी पिंजर में राम नाम सत है, वाले भजन के साथ-साथ ये गाना भी जरूर बजता होगा...‘चार बज गए.. पर पार्टी आभी बाकी है।’

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