फीफा कप या फीका कप
कुलविंदर सिंह कंग
कहते हैं फुटबॉल का महाकुंभ होता है फीफा। भई होता होगा.. हमें क्या? हम भारतीयों को तो ये सूट नहीं करता। फीफा वर्ल्ड कप में रात-रात भर जाग कर क्या मिला? एक-एक गोल को तरस गए। बेचारी फुटबॉल को मार-मार कर कभी इधर तो कभी उधर दौडाते रहे
लेकिन फुटबॉल भी केजरीबाल जैसी जिद्दी, गोल में जाने से साफ मना कर देती। मैदान छोड़कर कई बार बाहर भागी लेकिन ढंग से ठिकाने पर नहीं बैठी जाकर।
सुबह दफ्तर में सबको पता लग जाता था कि ये साब या फलां बाबू रात-रात भर जागकर फुटबॉल मैच देखते रहे होंगे,तभी तो मुंह फाड़-फाड़कर उबासियां ले रहे हैं। पूरे दफ्तर में सुस्ती फैला कर रख छोड़ी है। इससे
अच्छा तो माता रानी के दरबार में हो रहे जगराते में जाकर बैठते तो पिछले सारे पाप
धुल जाने थे।
चलो फीफा करवाना ही था तो इतना दूर
ब्राजील में जाकर करवाने की क्या जरूरत थी ? वहां दिन होता था तो उससे हमें क्या, हमारे यहां तो रात होती थी। रात के समय हम भारतीयों को और भी बहुत से काम
करने होते हैं जैसे... चलो छोड़ो। अगर करवाना
इतना ही जरूरी था तो यहीं कहीं कड़कड़डूमा या हापुड़ में करवा लेते। होस्ट होने के
नाते हम लोग भी खेल लेते वर्ना फीफा में
खेलने का सपना तो बरसों से सपना ही बना हुआ है। ये सपना चाहकर भी पूरा नहीं हो
सकता क्योंकि हमारे बड़े बुजुर्गों की नसीहत बीच में आ जाती है। हमारे दादा जी कहा
करते थे कि “बेटा किसी भी चीज को पैर नहीं लगाते, नहीं तो पाप लगता है” अगर पैर लगाने की छूट दी होती तो आज तक हम भी कई बार फीफा चैंपियन बन गए
होते। हमारे यहां देश को तो चूना लगा सकते हो लेकिन किसी चीज को पैर नहीं लगा
सकते।
सब जानते हैं दुनियां गोल है और
फुटबॉल भी गोल ही होती है। जिसमें हवा भरी होती है और सारी दुनियां जानती है कि हम
भारतीयों को हवा में छोड़ने की कितनी आदत होती है। यहां हर चीज में हवा है, हवा हवाई है या यूं कह लीजिए हवाई किले हैं। दूसरे भी बहुत सारे किले हैं
लेकिन कुल मिलाकर मेंटनेंस के अभाव में ये किले खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। किले
तो इतने बड़े-बड़े हैं कि किसी भी
किले में फुटबॉल के दो मैदान बनवाकर फीफा कप करवाया जा सकता है। दर्शकों के लिए
किले की ऊंची-ऊंची दीवारों पर
कुर्सियां लगवाई जा सकती हैं। मैं तो मार्केटिंग की बात कर रहा हूं। भारतीय
संस्करण का नाम होगा ‘पुराना किला फीफा कप’ या ‘लाल किला फीफा कप’ या ‘फतेहपुर सीकरी, मेहरान गढ़ या आमेर
फीफा कप’ वगैरा-वगैरा।
अब अगर हमारे यहां फीफा कप होगा तो
बड़ा ही मसालेदार होगा...क्योंकि
फीके कप को चट-पटाके में बदलना हम लोगों के बाएं हाथ का खेल है। शुरुआत करते हैं घोटाले से
क्योंकि हमारी सबकी मां ये ही कहती है ‘हर शुभ काम से पहले कुछ मीठा हो
जाए’। बड़े अफसरों का मुंह मीठा करवाएंगे तभी तो ‘पुराना किला फीफा कप’ से जुड़े कामों का ठेका मिलेगा ना
! अब घोटाले पकड़े जाएंगे तो उनका भी मुंह मीठा करवा देंगे क्योंकि हमारे देश में
हर आयोजन के बाद प्रसाद तो बंटता ही है।
2010 के कॉमनवेल्थ खेलों के
अनुभवी आयोजकों को अगर पुराना किला फीफा कप के आयोजन में लगा दें तो फुटबॉल को भी
संतरे की फांकों की तरह छील के रख देंगे।अब सवाल उठता है कि इस फीके कप को चट-पटाका कैसे बनाया जाए? एक धांसू आइडिया है I
क्रिकेट में जैसे ‘पावर प्ले’ होता है न, वैसे ही फुटबॉल में ‘कम्पलसरी गोल टाइम प्ले’ होना चाहिए। अगर पांच मिनट तक कोई गोल नहीं होता है तो सामने वाली टीम के साथ
धक्का-मुक्की, लात घूंसे चलाकर हाथ से गेंद गोल में डालना जायज होना चाहिए। किसी भी
तरह करो बस गोल होना चाहिए।
अरे भई ...पब्लिक गोल देखने ही तो आती है !
क्रिकेट में जैसे नो बॉल पर फ्री हिट होती है वैसे ही यहां बात-बात पर फ्री किक होनी चाहिए। गोल कीपर को बाजू में खिसकाने के लिए देसी कट्टे
या तमंचे का प्रयोग भी ट्रायल के तौर पर लागू करके देखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ध्वनि
प्रदूषण के सख्त खिलाफ है, इसलिए तमंचे पर साइलेंसर्स जरूर लगा होना चाहिए। स्विस
बैंकों से काला धन तो वापिस नहीं ला सकते लेकिन ऐसे चट-पटाके फीफा कप का आयोजन करके हम लोग स्विटजरलैंड के साथ फुटबॉल मैच खेलने का
सपना तो पूरा कर ही सकते हैं। आमीन...
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