खेलों में ऑड-इवन फार्मूला
कुलविंदर सिंह
कंग
दिल्ली के बढ़ते
ट्रैफिक और प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ये फार्मूला जनवरी 2016 के पहले
पखवाडे में चलाया गया, जो कि बेहद सफल रहा। सब लोगों ने
इसका स्वागत किया। जिन लोगों का काम सिर्फ रोना ही है वो लोग रोते ही रहे...
प्रशासन को कोसते भी रहे। कोई दूसरी गाड़ी खरीदने की सोचने लगा, कोई एक ही गाड़ी की दो नंबर प्लेट और कोई पतली गली से निकल भागने की
स्कीमें बनाता रहा। फिर भी फार्मूला सफल रहा।
मेरा मानना है कि
इस ऑड-इवन फार्मूले को अब खेलों में भी शामिल किया जाना चाहिए। मान लो, दिल्ली के किसी बड़े नेता का बेटा या किसी खेल संघ के
सर्वेसर्वा का कोई बेटा ऐंवेई खिलाड़ी बन जाए, असली खेल को
छोड़कर बाकी सारे खेल खेलना जानता हो, उसे ही ओलंपिक और
विश्वकप जैसी ‘ऑड’ सी जगहों पर भेजना चाहिए। ये कोई जरूरी थोड़े ही है कि हर
बार योग्य खिलाड़ी ही जाकर पदक जीतने की कोशिश करे। कई बार ऐसे खिलाड़ी भी भेजे
जाने चाहिए जिनका ‘पदक’ जीतने का कोई मूड ही ना हो? कितने
दशकों से हम बिना पदकों के ही तो लौट रहे हैं.. इसको ‘खाली हाथ’ लौटना भी
नहीं कह सकते क्योंकि दोनों हाथ शॉपिंग वाले बैगों से तो भरे होते ही थे। इसको ‘सद्भावना युक्त घर वापसी’ भी कह सकते हैं। अगर हमारे
खिलाड़ी के स्थान पर दूसरे देश का खिलाड़ी कोई पदक जीतता है तो उस देश की तमाम
जनता हमें धन्यवाद देगी.. दुआएं देगी और भविष्य में भी ऐसा करते रहने पर संभवत: पैसे भी
देने लग जाए। इस तरह से काले धन के रूप में जो पैसा बाहर गया है.. ‘खेल निवेश’ के रूप में
शायद लौट भी आए।
मैं उसी मुद्दे
पर आ रहा हूं जो कि शायद आप सोच रहे होंगे.. कि फिर योग्य खिलाड़ियों का क्या होगा? खेल यदि
भारत में ही कहीं हो रहे हों तो इन गरीब और योग्य खिलाड़ियों को वहां भेज दो। इन
बेचारों ने तो अभी भद्रावती, रांची, कनूर
और भुवनेश्वर जैसी जगहें भी नहीं देखी होंगी। नेशनल चैंपियनशिपों में खेल कर ये उन जगहों
को भी देख लेंगे। मेरा मानना है कि सब को ‘इवन’ चांस मिलना चाहिए। जहां तक‘ऑड’ का सवाल है तो दूर रियो ओलंपिक,
वेस्ट इंडीज दौरा, एशियन गेम्स या राष्ट्रमंडल
खेलों जैसी ‘ऑड’ जगहों पर इतनी लंबी थकान भरी यात्रा करनी पड़ती है...
जहाज में अंग्रेजी बोलनी पड़ती है.. तो वो तो फिर बड़े लोगों के ही बस की बात है।
बड़े लोगों के बच्चे कुछ भी कर सकते हैं... जब नौंवी कक्षा फेल बंदा
उप-मुख्यमंत्री बन सकता है तो फिर कुछ भी हो सकता है। दूसरी बात, आईंदा से बड़े-बड़े गेम्स तो अब विदेशों में ही होंगे... भारत में तो होने
से रहे क्योंकि 2010 के दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो ‘रायता’ फैलाया गया था वो तो आज तक भी समेटा नहीं जा सका है।
अब अगर ‘ऑड-इवन’ का
फार्मूला खेलों में लागू करेंगे तो कई चीजों में छूट भी देनी पड़ेगी जैसे दुपहिया
वाहन की तरह दोगले बोल बोलने वालों को वीआईपी यानि ‘वैरी
इन्टरफियरिंग परसन’ अकेली महिला एथलीट, बीमार खेल-संघों के बूढ़े अध्यक्षों को इवन नंबर से छूट मिलेगी... इसलिए
वे केवल दूर ऑड विदेशी जगहों पर ही जाया करेंगे। इस प्रकार से खेलों में
फैले प्रदूषण और फैलाने वाले खर-दूषणों का इलाज भी हो जाया करेगा।
मान लो, एक अंतरराष्ट्रीय ऑड इवन रोस्टर बन जाए जिसके तहत उन छोटे
गरीब देशों को भी ओलंपिक अलॉट करने जरूरी हो जिनकी मेजबानी की हैसियत भी ना हो तो
वहां आयोजन का स्वरूप कुछ ऐसा होगा। खिलाड़ियों को एक दिन खाना मिलेगा। दूसरे दिन
उपवास रखना जरूरी होगा। थाली पूलिंग सिस्टम के तहत एक ही थाली में चार-चार खिलाड़ी
भोजन करेंगे। गेम्स के लिए कोई अलग से विलेज बनाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी
क्योंकि इन देशों की अधिकांश जनता तो गांवों में ही रहती है। खिलाड़ियों को गांवों
में ही ठहराया जाएगा। खिलाड़ी रोज सुबह-सुबह हरे-भरे खेतों में सैर-सपाटे के
साथ-साथ नित्य कर्म भी संपन्न कर लिया करेंगे।
मुझे ऐसा लगता है
कि इस समय भारतीय क्रिकेट टीम जो ऑस्ट्रेलिया से पिट रही है.. उसका मैनेजर-कम-कोच-कम-मार्गदर्शक
बनाकर केजरीवाल को ऑस्ट्रेलिया भेजा जाना चाहिए था। वहां पर वे ऑड-इवन का फार्मूला
लागू करवा भारतीय टीम को वन-डे में सीरीज हारने से रोक सकते थे। क्या मजाल भारतीय
टीम ऑड डेट पर इवन स्कोर बना जाती। अगर विरोधी टीम के बल्लेबाज ओवर की ऑड गेंद पर
चौका या छक्का मारते तो केजरीवाल जी मैदान पर जाकर बल्लेबाज को गुलाब का फूल देकर
समझाते- ‘ना काके ना। ऑड गेंद पर चौका छक्का
नहीं मारते.. चौका छक्का तो इवन नंबर होता है। एक ही रन लो.. अगर दौड़ सकते हो तो
तीन रन दौड़.. नहीं तो चालान काट दूंगा।’ इस तरह से ऑस्ट्रेलिया
टीम का स्कोर आधा ही रह जाना था और भारतीय टीम जीतती चली जाती। फिर भी अगर
ऑस्ट्रेलिया वाले भारत को नहीं जीतने देते तो पूरी टीम को साथ लेकर पिच पर ही धरना
देना तो केजरीवाल जी के बाये हाथ का खेल था।
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