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उम्मीदों के टूटने और बनने की कहानी- रियो ओलंपिक



स्मिता मिश्र

दीपा करमाकर


इस अंक के साथ स्पोर्ट्स क्रीड़ा के चार वर्ष पूरे हो गए। लंदन ओलंपिक की पूर्व संध्या पर इस समाचार पत्र को शुरू किया गया था। स्पोर्ट्स क्रीड़ा के पहले संपादकीय का शीर्षक ‘खेल क्षेत्रे पुरुष क्षेत्रे’ था। उसी साल लंदन ओलंपिक में दो महिलाओं ने पदक जीत इस क्षेत्र में सेंध लगाई। और अब 4 साल के बाद रियो में तो करीब 130 करोड़ की आबादी वाले भारत की इज्जत केवल दो महिलाओं पीवी सिंधु और साक्षी मलिक ने बचाई। इस बार रियो के लिए अब तक का सबसे बड़ा भारतीय दल गया। जितना बड़ा दल, उतनी ही बड़ी उम्मीदे थी। इनमें गत ओलिंपिक पदक विजेता, विश्व के दिग्गज खिलाडी भी शामिल थे। पर पांच अगस्त से भारत के उम्मीदों के टूटने का जो तांता बंधा वह 17 अगस्त तक जारी रहा। अभिनव बिंद्रा, गगन नारंग, जीतू राय, दीपिका कुमारी, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा जैसे बड़े खिलाड़ी उम्मीदों का बोझ न उठा सके। लेकिन रक्षाबंधन के दिन भारत को फ़िल्मी नहीं बल्कि असली सुल्तान साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य जीत पदक तालिका में भारत का नाम चढ़ा दिया । और फिर उसके दो दिन बाद ही पीवी सिंधु ने देश को चांदी की रौशनी में नहला दिया। 

किदांबी श्रीकांत


इस तरह जहां एक ओर भारतीयों की उम्मीदें दम तोड़ रहीं थी, वहीं नई उम्मीद भी अंगड़ाई ले उठीं । महज 21 वर्ष की पीवी सिंधु ने दुनिया के बड़े-बड़े खिलाड़ियों के दांत खट्टे कर दिए। दीपा करमाकर जिमनास्टिक में भले ही चौथे पायदान पर रही लेकिन दुनिया ने इस खेल में भारत की धमक को महसूस किया है। जिस प्रोदुनोवा वाल्ट को मौत का खेल माना जाता है उसे करमाकर ने साधा । किदांबी श्रीकांत भले ही सेमीफाइनल में भी जगह बना न पाए हो लेकिन अपने क्वाटर फाइनल के मुकाबल में उन्होंने दो बार के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता लीनडेन के पसीने छुड़ा दिए। ललिता बाबर ने 3000 मीटर में स्पलचेज में 9:19.76 के राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया और एथलेटिक्स के फाइनल में पीटी उषा के बाद जगह बनाने वाली पहली महिला बनी। भारत के लिए रियो ओलंपिक की कहानी उम्मीदों के टूटने और बनने की कहानी है।

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