फिर दिल दो हॉकी को !!
स्मिता मिश्र
खेल की कहानी उत्थान पतन की
कहानी होती है। इसका ताजा उदाहरण है हॉकी। हॉकी का इतिहास केवल हॉकी ही नहीं बल्कि
भारतीय खेलों का भी स्वर्णिम इतिहास रहा है। पराधीन भारत से लेकर आजाद भारत तक
हॉकी द्वारा अनेक गौरवांवित क्षण भारत के लिए आए हैं। लेकिन हरी घास पर जादुई
कलाइयों की करामात नकली घास यानी एस्ट्रोटर्फ के ने से कमजोर हो गई।
एस्ट्रोटर्फ के आने से कौशल कम
और गति अधिक महत्वपूर्ण हो गई। कहा यह भी जाता है कि अपने औपनिवेशिक अहम की तुष्टि
के लिए एस्ट्रोटर्फ लाना योरोपीय चाल थी। खैर जो भी हो यह तो हुआ ही कि भारतीय 1964
के बाद एक लंबा अंतरात फिर 1975 में विश्वकप और 1980 मास्को ओलंपिक में स्वर्ण पदक
के बाद भारती हॉकी फीकी पड़ती गई। इसके पीछे वजह वैसे खेल संघों की आपसी खींचतान
भी रही।
लेकिन वर्ष 2016 जाते-जाते भारत
को जूनियर वर्ग के हॉकी विश्व विजेता की ताज पोशी करता गया। हालांकि इससे पहले
एशिया कप भी भारत ने महिला और पुरुष दोनों वर्गों में जीता। महिला टीम ने 36 वर्ष
बाद ओलंपिक में वापसी की। हॉकी इंडिया के प्रमुख नरेंद्र बत्रा विश्व हॉकी के
प्रमुख बने। ये संकेत बराबर उत्साह बढ़ाने वाले हैं।
यह सही है कि यदि फेडरेशन में
स्थायित्व होता है तो खेल का विकास होता है। खिलाड़ी के लिए अवसर पैदा होते हैं।
खिलाड़ी के मन में असुरक्षा का नाम नहीं होता। जब खेल संघों में कई फाड़ हो जाते
हैं तो खिलाड़ी के लिए संकट होता है कि किस धड़े को चुने। एक से जुड़ता है तो
दूसरे संघ वाले उससे हिसाब-किताब बराबर करते हैं। खेल टूर्नामेंट में एक संघ वाले
भाग लेते हैं तो दूसरे बॉयकाट करते हैं। ऐसे में खिलाड़ी की पूरी क्षमता खेल में
दिखाई नहीं देती। वे आपसी झगड़े के तनाव में उलझा रहता है। खिलाड़ी के बेहतर
प्रदर्शन के लिए खिलाड़ी के मन से असुरक्षा की भावना को खत्म करना बहुत जरूरी होता
जिससे वह केवल खेल पर ध्यान लगा सके।
जूनियर टीम की जीत इस ओर भी
इशारा करती है कि सरकार को ग्रास रूट स्तर पर ज्यादा कोशिश कर भी रही है ,साथ ही और करने की जरूरत है जिससे नए और प्रतिभावन खिलाड़ियों की नई खेप
प्रतिस्पर्धी भविष्य के लिए तैयार हो सके।
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