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ये अंदर की बात है जी!

कुलविंदर सिंह 'कंग'


आज रिवर्स किक रिवर्स नहीं बल्कि स्ट्रेट ही लगेगी। जूनियर विश्व कप हॉकी में लड़कियों ने कांस्य पदक जीतकर देश का नाम रौशन किया है। गले में एक भारी कांस्य पदक डालकर इनकी और इनके परिवारों की कमर और झुक गई। वो बात अलग है कि इन परिवारों की कमजोर आर्थिक स्थिति को देखकर शर्म से इस देश का सिर नहीं झुका। 

हम इन परिवारों को सैल्यूट और लड़कियों के जज़्बे को सलाम करते हैं कि ये लोग कर्जा लेकर भविष्य में भी इस देश के लिए खेलना चाहते हैं। क्या किसी स्पांसर की निगाह इन मेहनती बच्चियों पर नहीं पड़ती? क्या किसी का दिल नहीं पिघलता? पिघले भी कैसे? सैमसंग, गोदरेज, वर्लपूल, एलजी, फिलिप्स जैसी कंपनियां वो ही यंत्र बनाती हैं जिसमें बर्फ जमाने का काम होता है, तो फिर दिल-विल पिघलने की बात सोचना भी बेकार है। इनके एसी तो सिर्फ ठंडा करना ही जानते हैं तो फिर इनके विचारों में गर्मी कहां से आयेगी? ये वो देश है जहां जीत के बाद घोषित 25 हजार की मामूली राशि को पाने के लिए भी राष्ट्रीय हॉकी टीम के खिलाड़ियों को हड़ताल करनी पड़ी थी। जहां पैरालंपिक के पदक विजेताओं को भी चिल्ला-चिल्ला कर बताना पड़ता है कि वे भी खेल रत्न पुरस्कार के हकदार हैं। जहां कई पदक जीतने वाले खिलाड़ी देवेंद्र झाझरिया जैसे सिर्फ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरी ही पा सके हैं। 

बात हो रही है जूनियर हॉकी विश्व कप में कांस्य पदक जीतने वाली लड़कियों की। क्या एडिडास, नॉइकी या रीबॉक जैसी शूज़ बनाने वाली कंपनियों को इन लड़कियों के फटे हुए शूज़ दिखाई नहीं देते? मीडिया क्यों नहीं कोई कैंपेन चलाता? बाघ बचाओं अभियान तो इस देश ने बहुत चला लिया, पता नहीं ये देश हॉकी की इन शेरनियों को बचाने का अभियान कब चलाएगा? अब इनके परिवारों द्वारा कर्ज लेने का समय नहीं है बल्कि समय है कि अब देश इनके कर्ज को उतारे। ये समय है कि अब क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को भी प्रायोजक मिले। सचिन और धोनी कंचे या पकड़म-पकड़ाई भी खेले तो स्पांसर मिल जाएंगे। सारी दुनिया क्रिकेट के रंग में रंगी है। और तो और एशेज जीत के बाद इंग्लैंड़ के खिलाड़ियों ने ओवल पिच पर जो कारनामा किया है अगर उसका पहले से ही कुछ आइडिया होता तो उसके भी प्रायोजक मिल जाने थे। ओवल पिच पर इस ऐतिहासिक छिड़काव के प्रायोजक हैं फलानी सुंडी मार दवा। शायद खिलाड़ियों ने भी ओवल पिच की लंबी आयु के लिए ही ऐसा किया होगा... क्योंकि उनको पता है कि भारत में भी कुछ खास लोग अपनी आयु लंबी करने के लिए इस तकनीक का प्रयोग किया करते थे।

हमारे देश के खेल जगत को भी सुंडियों और कीड़े मकौड़ों ने घेर रखा है विश्व कप में गोल्ड मैडल जीत कर लौटी तीरंदाज दीपिका कुमारी एंड कंपनी को एयरपोर्ट पर कोई लेने ही नहीं आया। जरूरत भी क्या थी? एयरपोर्ट पर प्रीपेड टैक्सी मिलती है। टैक्सी करो और घर जाओ। क्रिकेट टीम जिम्बाब्वे का वाइट वॉश करके आई थी तब तो सारी सरकार का एयरपोर्ट पर पहुंचना बनता ही था। ऐतिहासिक पल जो था। रोमांचक जीत से लौटे थे हमारे सारे विराट खिलाड़ी। 

मेरा एक सुझाव है कि अगर हम क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों पर सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं तो इन सभी खिलाड़ियों को किसी सरकारी स्कूल में ले जाकर मिड डे मील खिलाना चाहिए... क्योंकि तबीयत ढीली होने पर ही सरकार तुरंत अपनी जेब ढीली करती है।
वैसे खेल मंत्रालय का अपना प्वाइंट भी ठीक है कि इन लड़कियों को किसने बोला था कि हॉकी खेलों या तीर चलाओं? किसने बोला था मैडल जीत कर लाओ? आज तक कोई मैडल जीतकर नहीं लाया था तो भी काम चल ही रहा था ना? भारत निर्माण हो ही रहा था ना? ऊंची कुर्सियों पर बैठे अधिकारियों के विदेशी दौरे लग ही रहे थे ना?

अगर मैडल जीतना ही था तो जाने से पहले बोलकर नहीं जा सकती थी कि मैडल जीतकर ही लौटेंगी? अब नई मुसीबत खड़ी कर दी, अब रिकॉर्ड दुरुस्त करने पड़ेगे। कम्प्यूटर और इंटरनेट पर अपडेट करना पड़ेगा। ये लड़कियां अगर बोलकर जाती तो हॉकी इंडिया का कम्प्यूटर ही ठीक करवा लेते जिसकी सारी तारें भी चूहे काट गए हैं। क्या करें, अभी ऑन ही नहीं किया... क्योंकि लंबे अर्से से कोई मैडल जीता भी तो नहीं ना।

अगर हॉकी वाली लड़कियां बोलकर गई होती तो खेल मंत्री द्वारा प्रैस को दिया जाने वाला बधाई संदेश ही तैयार करवा कर रखते। बस, मंत्री जी को इतना ही फर्क समझाना था कि ये मैडल हॉकी में आया है, जहां रन नहीं बनते हैं बल्कि गोल होते हैं। हॉकी के एक दो मैचों की रिकार्डिंग दिखाकर बताना पड़ता कि इस खेल को हॉकी का खेल कहते हैं और जो कभी हमारा राष्ट्रीय खेल हुआ करता था। मंतरी जी की तरफ से बड़ी ही गोल-मोल सी स्टेटमेंट बनानी पड़ती। क्यों? क्योंकि ये अंदर की बात है जी

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