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मेम साहब ‘मानवीय आधार’ इधर भी

सन्नी गोंड़

पता नहीं क्यों आज मेरा दिल दान करने को हो रहा था। तो मैंने एक हट्टे-कट्टे साधु को दान दे दिया। ठाकुर जी सामने से मेरा यह कृत्य बड़े चाव से देख रहे थे। उनसे रहा नहीं गया तो पूछ ही बैठे कि ये क्या कर रहे थे। मैंने कहा दान दे रहा था। किस आधार पर उन्होंने मेरे कहने से पहले ही सवाल दाग दिया। आधार! मैंने तपाक से वह जवाब चस्पा कर दिया जो आजकल काफी चर्चा में है कि मानवीय आधार पर। उन्होंने कुछ सोचा और अखबार का पन्ना पलटते हुए पूछा कि इस मानवीय आधार का आधार क्या है? मैंने मन ही मन सोचा कि इसके लिए तो सुषमा स्वराज से मुलाकात करनी पड़ेगी।
अब ठाकुर जी इत्मीनान से बैठे बोले क्या हुआ आधार नहीं मिला। मैंने उनकी ओर बढ़ते हुए कहा कि आधार जानने के लिए तो सरकार के पास जाना पड़ेगा। लेकिन उनसे सवाल करने में मेरा आधार हिल जाएगा। क्योंकि वह बड़े जनाधार वाली पार्टी है। अब इस साधू को दान देना मेरे गले की हड्डी बन गया। अब इसे निगलू या उगलू समझ नहीं आ रहा। मेरी तो कोई वसु-धरा भी नहीं है जो इस हड्डी को अपने गले में ले ले। ठाकुर जी बोले इस देश में जहां न भूखों की कमी है, न बेरोजगारों की और न ही आत्महत्या करनेवाले किसानों की। उस देश में मानवीय आधार दिखाने के लिए एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसके पास किसी भी चीज की कमी नहीं है। बताओं अभी कुछ दिन पहले मैने पढ़ा कि आइस हॉकी टीम के पास पैसे नहीं है कि वह टूर्नामेंट में जा सके। वह बेचारे लोगों से मदद की अपील कर रहे हैं। उनके बारे में सोचने में क्या मानवीय आधार की नींव हिल गई। कई खेल और खिलाड़ी ऐसे हैं जो तंगहाली झेल रहे हैं। मैंने कहा कि एक का नाम तो बता दीजिए। तो वह खिझते हुए बोलो। मुझसे तो कोई पूछने नहीं आया था कि प्रधानमंत्री किसको बनाया जाए। वह तो उन्हें गुजरात से ढूढ लाए। तो इन्हें भी ढूढ लो। मुझे पूरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री ढूढ़ने जीतने विवादस्पद यह नहीं होगा और जो दुआएं मिलेंगी वह अलग।
    
मुझे पता नहीं क्या सूझा मैंने ऐसे ही कह दिया कि अच्छे दिन नहीं आए क्या? उन्होंने बड़े चाव से कहा कि अच्छे दिन किसके आए मुझे यह आज पता चला। एक साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री जी ने सभी से पूछा कि क्या बुरे दिन गए। आवाज आई थी हां। अब पता लगा कि बुरे दिन किसके गए और हां कि आवाज कहां से आई थी। वह तो ललित मोदी लंदन में रहते हैं इसलिए आवाज यहां तक पहुंचने में जरा देर लगी। ठाकुर जी अपना अखबार समेटकर धीमे कदमों से घर में चल दिए। बुदबुदाते हुए कि मेरी आवाज पता नहीं कब सरकार तक पहुंचेगी।

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