खेल के मैदान से सीखे देशभक्ति के मायने
डॉ. अवधेश कुमार श्रोत्रिय
पिछले कई दिनों से जेएनयू विश्विद्यालय में घटित घटना ने पूरे देश का
ध्यान अपनी और आकर्षित कर रखा हैं। इस घटना से न केवल बौद्धिक पृष्टभूमि का गढ़
कहे जाने वाले प्रतिष्ठित विश्विद्यालय की अपितु पूरे देश की छवि पर दाग भी लगा
दिया हैं। इसी के चलते इक्कीसवीं सदी में देशभक्ति की परिभाषा के मायने भी
बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। राजनेता और बुद्धिजीवी अपने-अपने तरीको से देशभक्ति
के पाठ को व्याख्यित करते हुए न्यूज चैनल के डिबेट शो में रोज देखे जा सकते हैं।
जेएनयू प्रकरण में कही न कही उच्च शिक्षा ग्रहण करने की लालसा रखने
वाले छात्र-छात्राओं के साथ शिक्षा की नीति के निर्माताओं के दिल को छू लेने वाला
एक सन्देश भी दिया हैं कि अगर छात्र-छात्राएं अपनी ऊर्जा का संचारण बखूबी ढंग से
करे तो युवा पीढ़ी की अमूल्य धरोहर से सुसज्जित हमारा देश लगभग हर क्षेत्र में एक
प्रबल दावेदारी प्रस्तुत कर सकता हैं। निश्चित रूप से छात्र-छात्राओं के पास ऊर्जा
की कभी भी कमी नहीं होती हैं, बस उस ऊर्जा को सही दिशा की और ले जाने का प्रयास मिलकर सभी एजेंसियों को
करना चाहिए। अगर ऊर्जा की दिशा नकारात्मक हो तो छात्र के स्वयं के भविष्य के साथ
ही साथ उसका फल देश के लिए काफी कड़वा साबित होता हैं और वही अगर उसी ऊर्जा का
संचालन सकारात्मक दिशा में हो तो छात्र के स्वयं के सम्पूर्ण विकास के साथ-साथ देश
का विकास भी होता हैं।
ऊर्जा का नकारात्मक दिशा में जाने का कारण कहीं न कहीं उनकी खेल के
मैदानों से दूरी है। इसमें दो राय नहीं हैं कि खेल के मैदान एक ऐसी प्रयोगशाला
होती हैं जहां पर बस इन प्रयोगशालाओं का नियमित रूप से उपयोग एक नए प्रयोग के रूप
में कारगर सिद्ध होता हैं। इन्हीं प्रयोगों से देश में आपसी सौहाद्र, एकता और विश्वास जैसी
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होने के पर्याप्त तथ्य शारीरिक शिक्षा के शोध
संग्रहों के अवलोकन करने मात्र से पता चलता हैं। निस्संदेह खेल का मैदान ही वह जगह
हैं जहां बिना किसी भेदभाव के रहीम और राम साथ-साथ कोई भी खेल, खेल सकते हैं और जहां राम को रहीम के और रहीम को राम के धर्म से कोई
वास्ता नहीं होता हैं बस एक ही चीज को पाने का जूनून और जोश होता हैं और वो हैं ‘शानदार जीत।’
राष्ट्रभक्ति के पाठ की प्रथम पाठशाला भी अगर खेलों के मैदान को कहे
तो यह भी गलत नहीं होगा क्योंकि इसी जगह राम-रहीम दोनों ही समान रूप से वही गुण
सीखते हैं जो देश की एकता और अखंडता के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। प्ले स्कूल
में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करना भी इस तथ्य को प्रासंगिक मजबूती देता हैं। एक
सार्वभौमिक सत्य यह हैं की जैसे ही स्टेडियम में शान से झंडा लहराता हैं और
राष्ट्रगान की धुन कानो में गूंजती हैं तो स्वतः ही मन प्रफुल्लित होकर खिलाडि़यों
की खुशी संग झूम उठने का मन हर देशवासी का करता हैं। यह मैदान के बाहर की खेल
भावना का परिचायक हैं और अद्भुत मिसाल हैं देश भक्ति के जज्बे को आसानी से समझने
पाने के लिए। यहां यह कहना भी गलत नहीं होगा कि चाहे मैदान के बीच की दूरी कितने
मीलों की हो पर दिलों के बीच की दूरी को समाप्त करने के का एक बेहतर जरिया है
खेलों के मैदान। इसलिए किसी भी प्रकार की शिक्षा प्रणाली में खेलांे के मैदानों की
स्वस्थ भूमिका को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
1975 में मशहूर दार्शनिक शिलर और मनोवैज्ञानिक स्पेंसर
नें मिलकर खेलने के सिद्धांत ‘अतिरिक्त ऊर्जा’ के माध्यम से बताया था कि खेलने (शारीरिक क्रिया) से ही हम अपने शरीर की
ऊर्जा का सही तरीके से प्रयोग कर रचनात्मक कार्य कर सकते हैं। शारीरिक और मानसिक
रूप से जब ऊर्जा का संचारण खेल के माध्यम से एक धारा में बहता चला जाता हैं तो कोई
और मार्ग ही नही बचता हैं जहां किसी और गतिविधि पर आपका ध्यान जाता हुआ सा दिखे।
भविष्य में जेएनयू जैसी घटनाआंे पर रोकथाम के लिए हर शिक्षण संस्थान में खेलने के
मैदान को वरीयता दी जानी चाहिए और नियमित रूप से छात्रों को खेल के मैदान से जोड़े
रखने के लिए विभिन्न प्रकार के खेलों की छोटी बड़ी प्रतियोगिताओं का आयोजन भी
कराते रहना चाहिए ताकि छात्र-छात्राआंे के जोशीले अंदाज से आपसी रंजिश एवं द्वेष
की भावना न पनप पाए क्योंकि... जितना खेलेंगे खेलध् उतना ही बढ़ेगा आपसी मेल।
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