बजट तो बढ़ा, पर परफॉरमेंस नहीं !
स्मिता मिश्र
वर्ष 2017-18 का बजट भारतीय खेलों के लिए 351
करोड़ की वृद्धि लेकर आया। 2018 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों और एशियाई खेलों के मद्देनज़र यह
राशि महत्वपूर्ण सिद्ध होगी। इधर खेल राज्यमंत्री द्वारा खेलों को समवर्ती सूची
में शामिल करने के भी प्रस्ताव के साथ अनेक घोषणाएं खेल मंत्रालय द्वारा की
गई जिसमें खेल जानकारी से पूर्ण ‘स्पोर्ट्स-एप’ को विकसित करना, स्कूली पाठ्यक्रम में खेल को शामिल
करना, टास्क फोर्स गठित करना, विश्वविद्यालयों
को स्पोर्ट्स हब बनाया जाना आदि प्रमुख है।
सुनने में ये सभी घोषणाएं बहुत प्रभावी लग रही हैं।
हालांकि इससे पहले भी घोषणाएं होती रही हैं, नीतियां भी बनी है लेकिन समस्या इन
तमाम नीतियों के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन की हैं। पहले तो घोषणाएं मात्र घोषणाएं
बन कर रह जाती हैं यदि घोषणाएं नीतियां बनती हैं तो क्रियान्वयन की दिक्कत रहती
है।
जहाँ तक बजट का प्रश्न है ,इस वर्ष के बजट में
पिछले वर्ष की तुलना में 1592 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 1943 करोड़ रुपए कर दिए गए
हैं। खेल संघों को 185 करोड़ से 302 करोड़ रुपए बढ़ा दिए गए हैं। ‘खेलो इंडिया’ का फण्ड 140 करोड़ से 350 करोड़ कर दिया।
उत्तर-पूर्व का बजट 131.33 करोड़ से बढ़ा कर 148.4 करोड़ कर दिया।
प्रश्न यह है कि खेल संघों का अनुदान तो बढ़ा दिया
लेकिन उनकी जिम्मेदारी सुनिश्चित कैसे की जाए। राजनीतिक उठापटक, आपसी खींचतान,
पद का दुरुपयोग आदि से हमारे खेल संघ अटे पड़े हैं। भारतीय खेल
प्रधिकरण के प्रशासक हमारे स्टेडियमों के गेट को आम जनता के लिए कितना खोल पा रहे
हैं इस पर भी ध्यान देना जरूरी है। स्टेडियम और खेल के मैदान आम जनता की पहुंच से
काफी दूर हो गए हैं। कुछ साईं प्रशासक तो तानाशाही रवैए के लिए खासे चर्चित हैं जो
न तो आम जनता बल्कि मीडिया के प्रवेश पर भी पाबंदी लगा देते हैं।
अब खिलाड़ी भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। रियो
ओलंपिक में मात्र दो पदक आना खिलाड़ियों पर भी सवालिया निशान लगाते हैं। आज खेलों
में पैसा आ रहा है, खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन कर स्टार बन रहे हैं। लेकिन खेल के प्रति फोकस में
भी कमी आ रही है। खिलाड़ी खेल पर एकाग्र करने के बजाय सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने
लगे हैं। घरेलू खेल या प्रतियोगिताओं में अनुपस्थित हो रहे हैं। एकाग्रता किसी भी
खिलाड़ी के लिए जीत का एक अहम मंत्र होता है। एक बार स्टार बनने के बाद खेल से
ध्यान अन्य चीजों पर ज्यादा चला जाता है। इन अन्य चीजों के कारण ही प्रतियोगिताओं
में उनकी उपस्थिति कम होने लगती है। जिसका खामियाजा खेल में उनके प्रदर्शन में
देखने को मिलता है। जबकि होना यह चाहिए कि पदक मिलने के बाद उनकी उपस्थिति
प्रतियोगिताओं में ज्यादा होनी चाहिए जिससे जो नए खिलाड़ी आ रहे हैं उनको उस
पदकधारी के अनुभव का फायदा मिले।
सरकार ने तो अपना काम कर दिया अब बारी खिलाडियों की
है। अब शिकायत नहीं मेहनत करनी है।
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